अग्नि देवता (Agni Devta) के कर्मभेद से नाम
- ऋग्वेद (rugved) की प्रथम ऋचा अग्नि स्तुति से आरम्भ होती है। अग्नि का अर्थ है गुप्तरूप से गमन करने वाले देवता। सभी देवों को हवि अग्नि ही पहुँचाते हैं।मनुष्य अपनी आंखों से उस हवि को देवता तक पहुँचते नहीं देख पाता है इसीलिये उनका गुप्तत्व है।
१- लोक को पवित्र करने की क्षमता अग्नि में है। अशौच हवन से ही दूर होता है।अतः उसे “पावक”कहा गया।
२- गर्भाधान के समय हवन करते हुए जिस अग्नि की स्थापना की जाती है उसे “मारुत” अग्नि कहते हैं।
३- पुंसवन संस्कार के समय जिस अग्नि की स्थापना होती है उसे “पवमान” अग्नि कहते हैं।
४- सीमन्तोनयन के समय जिस अग्नि की स्थापना होती है उसे “मंगल” अग्नि कहते हैं।
५- जातकर्म संस्कार के समय स्थापित होने वाले अग्निदेव को “प्रबल”नाम से जाना जाता है।
६- नामकरण के समय स्थापित होने वाले अग्निदेव को”पार्थिव”नाम से अभिहित किया जाता है।
७-अन्नप्राशन के समय “शुचि”नामक अग्नि की स्थापना होती है।
८-मुंडनसंस्कार में “सभ्य”नामक अग्निको स्थापित किया जाता है।
९- गोदान के समय हवन के लिए स्थापित अग्निदेव को “सूर्य”अग्नि कहते हैं।
१०- उपनयन में स्थापित अग्निदेव को “समुद्भव” नाम से जाना जाता है।
११- विवाह में जिस अग्नि में हवन होता है उसे “योजक” कहते हैं।
१२- वैश्वदेव में प्रयुक्त अग्नि को “रुक्मक”अग्नि कहते हैं।
१३- आवस्थ्य में स्थापित अग्निदेव को “द्विज” अग्नि कहते हैं।
१४- प्रायश्चित्त में प्रयुक्त अग्नि का नाम”विट” है।
१५- देवकार्य में स्थापित अग्नि को “हव्य”अग्नि के नाम से जाना जाता है।
१६- प्रेतकार्य, श्मशानकार्य के अग्निदेव को “क्रव्य” कहा जाता है।
१७- शान्तिकर्म में प्रयुक्त अग्निदेव का नाम”वरद”है।
१८- पितरों के कर्म स्थापित अग्नि “क्रव्यवाहन” है।
१९- पुष्टि कर्म में “बलवर्धन” नामक अग्नि की स्थापना होती है।
२०- यज्ञशाला में “दक्षिणाग्नि” की उपस्थिति होती है।
२१- गृह में स्थित अग्नि को “गार्हपत्य” नाम से जाना जाता है।
२२- पूर्णाहुति में “मृड”अग्नि की उपस्थिति होती है।
२३- उदर की अग्नि को “जठर” कहते हैं।
२४- जंगल में लगने वाले अग्निदेव को “दाव” कहते हैं।
२५- समुद्र में जलने वाले अग्निदेव को “वाडव” कहते हैं।
२६-सृष्टि को जला देने वाले अग्निदेव का नाम “संवर्तक” है।
२७- एकलक्ष आहुति लेने वाले अग्निदेव का नाम “वह्नि” है।
२८- एक करोड़ आहुति लेने वाले अग्निदेव का नाम ” हुताशन ” है।
२९- अभिचार मेंस्थापित अग्नि का नाम”क्रोध” है।
३०- वशीकरण में प्रयुक्त अग्निदेव का नाम “कामद” है।
३१- शरीर में विद्यमान अग्नि को भगवान श्रीकृष्ण ने वैश्वानर कहा है- “अहं वैश्वानरो भूत्वा”।
३२- धूममार्ग से चलने वाले अग्नि को “कृष्णवर्त्मा” कहते हैं।
पवित्र करने की क्षमता से वह पावक है, वहन करने की क्षमता से वह हव्यवाहन है।वेद जिसके लिए हैं वह जातवेदस है।
देवों के मुख अग्नि हैं ऐसा महाभारत में कहा गया है- मुखं त्वमसि देवानां यज्ञस्त्वमसि पावक।। देवानां मुखमग्ने त्वं सत्येन विपुनीहि माम् ।। सभा पर्व ३१/४१-४६।।
अपने भीतर की अग्नि को जो पहचान लेता है उसका जीवन यज्ञमय हो जाता है। ९८.४
तापमान रूप वैश्वानर को प्रणति है।।
।। अग्नि देव की सप्तजिह्वा ।।
काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। विस्फुलिंगिनी विश्वरूपी च देवी लोलायमाना इति सप्त जिह्वा।।
अग्नि मण्डल से निकलने वाली सात लपटें ही अग्नि की सात जिह्वा हैं।
ॐ अग्निदेवाय नमः
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