भविष्य पुराण।
उत्तरपर्व (तृतीय खण्ड)
गोवत्सद्वादशीका विधान, गौओंका
माहात्म्य, मुनियों और
राजा उत्तानपाकी कथा।
भाग 2 – पोस्ट 431
गौओंके सिंगकी जड़में सदा ब्रह्मा और विष्णु प्रतिष्ठित है। शृङ्गके अग्रभागमें सभी चराचर एवं समस्त तीर्थों प्रतिष्ठित है। सभी कारणोंके कारणस्वरूप महादेव शिव मध्यमें प्रतिष्ठित है। गौके ललाटमें गौरी, नासिकामें कार्तिकेय और नासिकाके दोनों पुटोंमें कंबल तथा अश्वतर ये दो नाग प्रतिष्ठित है।
दोनों कानोंमें अश्विनीकुमार, नेत्रोंमें चंद्र और सूर्य, दांतोंमें आठों वसुगण, जीह्वामें वरुण, कुहरमें सरस्वती, गण्डस्थलोंमें यम और यक्ष, ओष्ठोंमें दोनों संध्याऐं, ग्रीवामें इंद्र, ककुद (मोर) में राक्षस, पार्षणी-भागमें धौ और जंघाओंमें चारों चरणोंसे धर्म सदा विराजमान होता है। खुरोंके मध्यमें गंधर्व, अग्रभागमें सर्प एवं पश्चिम-भागमें राक्षसगण प्रतिष्ठित है।
गौके पृष्ठदेशमें एकादश रूद्र, सभी संधियोंमें वरुण, श्रोणितट (कमर) में पितर, कपोलोंमें मानव तथा अपानमें स्वाहा-रूप अलंकारको आश्रित कर श्री अवस्थित है। आदित्यरश्मियाँ केश-समूहोंमें पिण्डीभूत हो अवस्थित है। गोमूत्रमें साक्षात गङ्गा और गोमयमें यमुना स्थित है। रोमसमूहमें तेंतीस करोड़ देवगण प्रतिष्ठित है। उदरमें पर्वत और जंगलोंके साथ पृथ्वी अवस्थित है। चारों पियोधरोंमें चारों महासमुद्र स्थित है। क्षीरधाराओंमें मेघ, वृष्टि एवं जलबिंदु है। जठरमें गार्हपत्याग्नी, ह्रदयमें दक्षिणाग्नि, कंठमें आहवनियाग्नि और तालूमें समयाग्नि, स्थित है। गौओंकी अस्थियोंमें पर्वत और मज्जाओमें यज्ञ स्थित है। सभी वेद भी गौओंमें प्रतिष्ठित है। हे युधिष्ठिर !
भगवती उमाने उन सुरभियोंके रूपका स्मरणकर अपना भी रूप वैसा ही बना लिया। छ: स्थानोंसे उन्नत, पांच स्थानोंसे निम्न, मण्डूकनेत्रा, सुंदर पूंछवाली ताम्रके समान रक्त स्तनवाली, चांदीके समान उज्जवल कटी-भागवाली, सुंदर खुर एवं सुंदर मुखवाली, श्वेतवर्णा, सुशीला, पुत्रस्नेहवती, मधुर दूधवाली, शोभन पयोधरवाली:- इस प्रकार सभी शुभ लक्षणोंसे संपन्न सवत्सा गौरूपधारिणी उस उमाको वृद्ध रूद्ररूपधारी भगवान शंकर प्रसन्नचित्त होकर चरा रहे थे। है पार्थ ! धीरे-धीरे वे उस आश्रममें गये और कुलपति भृगुके पास जाकर उन्होंने उस गायको न्यासरूपमें दो दिनोंतक उसकी सुरक्षा करनेके लिये उन्हें दे दिया और कहा:-‘मुने ! मैं यहां स्नानकर जम्मूक्षेत्रमें जाऊंगा और दो दिन बाद लौटूंगा, तबतक आप इस गायकी रक्षा करें।’ मुनियोंने भी उस गौकी सभी प्रकारसे रक्षा करनेकी प्रतिज्ञा की।
भगवान शिव वहीं अंतरहीत हो गये और फिर थोड़ी देर बाद वे एक व्याघ्र-रूपमें प्रकट हो गये और बछड़ेसहित गौको डराने लगे। ऋषिगण भी व्याघ्रके भयसे आक्रांत हो आर्तनाद करने लगे और यथासंभव व्याघ्रको हटानेके उपाय करने लगे। व्याघ्रके भयसे सवत्सा वह गौ भी कूद- कूदकर रंभाने लगी। युधिष्ठिर ! व्याघ्रके भयसे डरी हुई गौके भागनेपर चारों खुरोंका चिन्ह शीला-मध्यमें पड़ गया। आकाशमें देवताओं एवं किन्नरोंने व्याघ्र (भगवान शंकर) और सवत्सा गौ (माता पार्वती) की वंदना की। शिलाका वह चिन्ह आज भी सुस्पष्ट दिखता है। वह नर्मदाजीका उत्तम तीर्थ है। यहां शंभू तीर्थके शिवलिंगका जो स्पर्श करता है, वह गौहत्यासे मुक्त हो जाता है। राजन ! जंबूमार्गमें स्थित उस महातीर्थमें स्नान कर ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्ति मिल जाती है।
क्रमशः
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